Sunday 11 November 2012

पहाड़ों की सुबह...

एक अरसे बाद आज सुबह को नींद से जागते हुए देखा...
आज मेरी आँखों में नींद कहाँ थी
और इसी बहाने सुबह को एक नए रूप में देख लिया
अभी रात की खुमारी पूरी उतरी भी ना थी
और वो कुछ बिखरे से बाल अभी भी अँधेरा किये थे
धीरे-धीरे ओंस की बूंदों से सुबह ने जो मुंह धोया
तो मेरे शब्दों की पोटली में रखे चंद हुस्न के मोती भी कुछ ना कह पाए
अभी तो ये आरम्भ था सुबह के श्रृंगार का
वो सूरज की बिंदिया जो सुबह ने माथे पे लगायी
तो हवा ने भी बिन कहे इत्र सी खुशबू बिखेर दी
इस अनोखे रूप की कहानी कुछ पंछी भी गा रहे थे
और कुछ देर में सूरज ने भी खुश होके अपनी रोशनी के मोती बिखेर दिए
वो फूलों का खिलना ही बाकी था श्रृंगार के लिए अब
सच में ये सुबह भी शरमाती है शायद बड़े शहरों से
तभी यूँ बन संवर के कभी शहरों में नहीं आती
या फिर इसे भी फुरसत नहीं इन भागते हुए शहरों में
जो कुछ देर आराम से यूँ ही सज-संवर ले...


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