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Sunday, 11 November 2012

पहाड़ों की सुबह...

एक अरसे बाद आज सुबह को नींद से जागते हुए देखा...
आज मेरी आँखों में नींद कहाँ थी
और इसी बहाने सुबह को एक नए रूप में देख लिया
अभी रात की खुमारी पूरी उतरी भी ना थी
और वो कुछ बिखरे से बाल अभी भी अँधेरा किये थे
धीरे-धीरे ओंस की बूंदों से सुबह ने जो मुंह धोया
तो मेरे शब्दों की पोटली में रखे चंद हुस्न के मोती भी कुछ ना कह पाए
अभी तो ये आरम्भ था सुबह के श्रृंगार का
वो सूरज की बिंदिया जो सुबह ने माथे पे लगायी
तो हवा ने भी बिन कहे इत्र सी खुशबू बिखेर दी
इस अनोखे रूप की कहानी कुछ पंछी भी गा रहे थे
और कुछ देर में सूरज ने भी खुश होके अपनी रोशनी के मोती बिखेर दिए
वो फूलों का खिलना ही बाकी था श्रृंगार के लिए अब
सच में ये सुबह भी शरमाती है शायद बड़े शहरों से
तभी यूँ बन संवर के कभी शहरों में नहीं आती
या फिर इसे भी फुरसत नहीं इन भागते हुए शहरों में
जो कुछ देर आराम से यूँ ही सज-संवर ले...


Wednesday, 25 April 2012

वो तारों की महफ़िल...



कुछ सालों बाद एक जानी पहचानी-सी राह से गुजरा
एक बड़ी ख़ास जगह नजर आई
यूँ तो जगह छोटी ही थी,
पर वो कुछ बड़ा-सा पत्थर ख़ास था कभी मेरे लिए
चाहता तो था कुछ देर बैठूं उस पर
पर एक प्यारा-सा जोड़ा बैठा था
जो शायद काफी था उस पत्थर के लिए, और हाँ मेरी यादों के लिए भी
वो दोनों तारों की महफ़िल ही निहार रहे थे
इस महफ़िल के तारों को तो मैं भी जानता हूँ
कुछ को तो नाम भी दिए थे मैंने, अब याद नहीं
बस इतना याद है, एक मीठा-सा झगडा हुआ था नाम को लेके किसी के संग,
और लगभग रोज ही ताकते थे इन तारों को हम
शायद इस आस में कि गर कोई टूटे तो कुछ मांग ही लें...
सचमुच कितने अजीब होते हैं ये तारे भी,
दूर बहुत हैं
रोशनी तो हमे दे नहीं पाते,
बस दे जाते है टूटने पर कुछ को उनकी ख्वाहिशें
मैंने तो बस तुम्हारी ख़ुशी ही मांगी थी,
शायद मिली भी होगी तुम्हे
अपने लिए कमबख्त कभी कुछ मांग ना सका...

इस महफ़िल के तारों का तो पता नहीं,
पर हाँ,
जरूर टूट गया था वो प्यारी सी मुलाकात का सिलसिला
और तुम भी कुछ नए तारों की महफ़िल तले चली गयी दूर कहीं...

तारों का टूटना तो अब भी देख लेता हूँ कभी-कभार
बस थोड़ा मुस्कुरा लेता हूँ और अब रखता नहीं मैं इनसे कुछ आस
क्यूंकि अब शायद कोई वजह नहीं रही कि तारों का टूटना लगे कुछ ख़ास...




P.S. : I am not a hard core lover...character में डूब के लिखा है :)

Saturday, 24 March 2012

कहानी SONY-CID की...

इस घटना के सभी पात्र काल्पनिक हैं. अगर इसका सम्बन्ध आपकी किसी सच्चे अनुभव से है तो ये मात्र एक संयोग होगा. अगर किसी की भावनाएं आहात हुई तो उसके लिए छमा करें...

ऑफिस से थका हारा  घर  को  आया,
System पे गाना फुल volume में चलाया.
सांवरिया Style में  towel घुमाया,
Shower को अपना गाना सुनाया
फिर अदरक वाली चाय संग,
Britannia Marie Gold का  तड़का लगाया.
इधर- उधर कुछ फोन घुमाये,
फिर सोचा कुछ news हो जाये.
स्टाइल में remote का  button दबाया,
TV पे  जाना पहचाना  सा  चेहरा पाया...

Ohh no...

फिर बड़ी आसानी  से  खुद  को  समझाया.
The variable is SONY, then obviously default value CID ही  होनी.
वो दया का मुस्कुराता हुआ चेहरा पाया,
Forensic expert के logic को पचाया.
गोली कहाँ से कितनी दूर से चली,
फिर आकर ACP साब ने बताया.
अभी तो ये शुरुवात थी,
आगे पूरी रात थी.

Case as usual दिलचस्प  था,
इसी बहाने मैं भी mind exercise में व्यस्त था.

Oho then suddenly a break…

Now it’s time to play some mind game,
that’s why I switched off the TV again.
फिर  door bell के साथ में चिल्लाने की आवाज़ आई…
अड़े NeOOOOOO…
Mr Anderson was at the door...

Hey what about the market scene man,
Oracle BABA ने कुछ नाम बताये थे.
Shares going up or down again ?

अब फिर से स्टाइल में remote दबाया,
और share market का हाल सामने पाया.
Market scene was quite fine,
Now my turn to catch the time.

SONY- CID के प्यार के दम पर,
सोचा कुछ कमाई हो जाये.
Mr Anderson को बोला plug to SONY,
कुछ serious comedy हो जाये.

Mr Anderson : णा पगला  गया  छोरे, यो  कोण सा  time है  CID का ?

ये  मूरख क्या जाने  SONY-CID का प्यार,
वक़्त  की  नजाकत को लपक मैंने किया फिर अगला वार.

Me : OK सो-सो  रूपये  की  शरत हो  जाये .
Mr Anderson: शरत घोड़ों  पर लगायी जाती  है, शेर पर नहीं  !!!

/* CID is शेर , इतने time  से लोगों  के  दिलों  में  और  TV पर  राज  कर रहा है ...
CID was from fav list of Mr Anderson, एक शेर का मालिक ही जाने है उसको चारा कब डालना है */

Mr Anderson: दे  लगा  पञ्च -पञ्च सो  की शरत
Me : OK OK...देखना  पड़ेगा...
Mr Anderson: दे  क्या  देखना  पड़े…दे  देणा आराम से...
Me: OK done...
तो  ले...TV got some rays coming out of remote

Mr Anderson: णा  क्या  हो  गया  यो…ना मतलब  कैसे ???

Me: अबे  इतना  CID देखा  पर  तू  SONY-CID का  प्यार  ना  पहचान  पाया.
अबे  इनके  प्यार  की  खबर  भी  है  तुझे, किस्सों  में  ही  hard -disk भर  जाये.

चल  छोड़  तू  क्या  जाने, प्यार  क्या  होता  है...

Case भी  अब  तक  solve था , खुशियों  का  माहौल  था .
फिर  ACP साब ने आकर, किया सबको  खबरदार.
और Mr Anderson को  पता  चला  क्या  होता  है सच्चा  प्यार.
CID तो  बना ही SONY के लिए है, आता  रहेगा  बार -बार...
बार-बार हर बार लगातार... 

जिंदाबाद -जिंदाबाद  SONY-CID का  प्यार  जिंदाबाद !!!

P.S. I wrote this 2 years back when SONY-CID was in committed  relationship. Now  because of 'Crime-Patrol' there are some misunderstanding in their relationship, hope everything will be fine soon.



Wednesday, 7 March 2012

Go Green Go Green !!!


Go Green Go Green,
You all people know what I mean;
It’s more than a colour what it seems.
Go Green Go Green...

So much of deep in this theme,
That’s why today my memories are Green;
Here I’ve something which not funny it seems.

Those were the summers of ten years back,
We had a place called players’ track.
Every memory of playing soccer like a freak,
There was a Maradona in every street.
No fix time when match began,
We were the lions of our Green den.
Now this is the past which it seems,
But I still miss the den which was Green.
Now there is something with too much of heights,
Quite like a den where people reside.
Still some lions there are it seems,
Not from den Green they like game screens.

...........................

This is just a signal which is from past,
Not a big issue but means so vast.
If you want to catch all signals Green,
Just know the Red once and make them clean.
Save energy and Earth which I mean
No need to scream just start from your Screen.
Go GREEN Go GREEN!!!


Thursday, 22 December 2011

यादों का पानी...

आज यादों के पानी में डुबकी लगाने का मन हुआ
डुबकी सोचके डूबा था ये तो गहरा गोता हुआ
गोता जितना गहरा हुआ
खजाना यादों का और सुनहरा हुआ... 

सूरज शायद आसमां में अपने पूरे जोर पे था
और मैं भी कहीं छोटी राह पे चलने को मजबूर था
हाफ-पैंट पहने बड़ा रहा था मैं छोटे-छोटे कदम
और धूप-प्यास से निकला जा रहा था मेरा दम
गले में मिल्टन की एक बोतल जो लटकी थी
शायद उसी पे ही मेरी जान अटकी थी
धूप से चेहरा लाल था
और कुछ बड़े से बैग ने किया हाल बदहाल था... 

सारे मौसम शायद दोस्त थे मेरे,
तभी तो सर्दी , गर्मी और बरसात का ना था कोई मलाल
बस थोड़ा मायूस होता था बरसात में,
जब देखता था मैदान का बुरा हाल
घर पे कैसे टिकूंगा ये सोचकर,
चेहरा गुस्से से होता था लाल
फिर थक हार के बैठ जाता,
होमवर्क निपटाने का था जो बड़ा सवाल
बेसब्री से इन्तेजार करता था संडे का
दिन भर क्रिकेट का, जो होता था पूरे साल
यूँ ही गुजरता था हर साल,
फ्यूचर का कहाँ था कोई सवाल...

आज में ही जीता था
और आज का ही पानी पीता था
अब तो कहने को आज में जीता हूँ
कल की यादों का पानी पीता हूँ
कल की फिकर है ज्यादा इतनी
फ्यूचर का टेंशन सीता हूँ
बस यादों का पानी पीता हूँ,
और कहने को आज में जीता हूँ...