Thursday 29 December 2016

प्रस्तरों का नगर, हम्पी...

हूँ मैं विस्मित
देखके अनुपम कला का रूप
इन प्रस्तरों की काय में

प्रस्तरों के इस नगर में
कौन थे वो
जो प्रस्तरों को चीरते थे
स्वेद अपना झीरते थे
दिन-रात अपनी कल्पनाओं की तरंगों से
इस नगर को नीरते थे

क्या वो सब मानव ही थे
या देव थे, गन्धर्व थे
या थे वो परिग्रह निवासी
क्या ये कोई जानता है
उस सत्य को पहचानता है
क्यों हुआ वो काल खण्डित
अब तो है वैभव वो कल्पित
कुछ शिलाओं को समर्पित
कर रहा मुझको अचंभित
कुछ उद्वेलित
एक सत्य संग...
ये सत्य मुझसे कह रहा है...

इक प्रमाणित तथ्य का साक्ष हूँ मैं
काल खण्डित गौरवों का हास हूँ मैं
प्रस्तरों के रूप में इतिहास हूँ मैं...




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