Wednesday 26 October 2011

एक दिवाली ऐसी भी...


आज फिर कुछ जल्दी से आँखें खुली
और सुबह को नए दिन के लिए सजते हुए देखा
बर्फ से ढकी चट्टानों को देख यूँ लगा,
मानो कोई परी अपने सूरज के इन्तेजार में है
एक ठंडी और साफ़ हवा,
बिना खुशबू के भी एक ताजा सी महक दे रही थी...



पढ़ा था मैंने किताबों में,
कभी कहा था किसी शहन्शाह ने,
स्वर्ग धरती पे यहीं कश्मीर में है
सच ही कहा था अब जान पाया हूँ
यूँ तो अपना घर सभी के लिए स्वर्ग सा होता है,
जिसे छोड़ने का अफ़सोस हुआ था थोड़ा सा
मगर घर से दूर भी स्वर्ग में ही रहने आया हूँ...


आज घरों में दिवाली है
दिये,मिठाई,प्यार और आतिशबाजी का त्यौहार
आतिशबाज़ी से याद आया,
बचपन में थोड़ा सा डरता भी था मैं इनसे कभी-कभी
पर अब तो आतिशबाज़ी की आदत सी हो गयी है
वरना ज़िन्दगी सूनी-सूनी सी लगने लगती है
दिवाली के लिए किसी अमावस का इन्तेजार नहीं है अब
दिये की तरह जलता हूँ दिन-रात कि देश मेरा रोशन रहे
और कहने को रोज ही दिवाली खेल लेता हूँ कि घरों में दिवाली होती रहे...

अब तो आदत सी हो गयी है स्वर्ग में रहने की शायद
और एक अच्छी बात भी सुनी है मैंने,
"मरने के बाद शहीदों को स्वर्ग ही मिलता है"
तभी तो आतिशबाज़ी से रोज ही खेल लेता हूँ
और अब मरने से कहाँ मैं डरता हूँ
वो घर मेरा स्वर्ग बना रहे इसलिए इस स्वर्ग में रहता हूँ...

Sunday 23 October 2011

तुम्हारी आँखों का काजल...

तुम्हारी आँखों का काजल चश्मों के अंदर से झांकता होगा
मेरी राह ताकता होगा

शायद उसे भी पता है
ये शीशे के उस पार काजल वाली आँखें मुझे हैं भाती
ये आँखें ही तो हैं जो चश्मे और काजल को रोजगार हैं दिलाती
काजल सुकून देता होगा और चश्मा बचाता होगा धूल से

मत उतारा करो चश्मे और काजल को
बेचारे भूखे पेट मर ही जायेंगे
वैसे भी इन बेशकीमती आँखों को सख्त जरूरत है पहरेदारी की... 


Saturday 22 October 2011

पतंगें आज भी उडाता हूँ...

बचपन में पतंगों संग फिकरें भी उड़ जाती थी आसमां में
बस एक फिकर कटने की

पतंगें आज भी उड़ाता हूँ सपनो की
और एक पल को फिकरें भी उड़ जाती है सब
खुद ही कन्नी बनाता हूँ और चरखी भी सम्हालता हूँ
बड़ी मेहनत से मांजा बनाया है
कभी ढील देता हूँ तो कभी खींच
आज भी मैदान पर ही हूँ
मुकाबला है ऊँची छत वालों से
हवा भी कुछ ख़ास चलती नहीं
ना जाने क्यूँ कटने की फिकर भी कुछ ज्यादा ही
लूटने वालों की कमी नहीं
और कोई साथी भी संग नहीं
जो दौड़ के उठा ले मेरी कटी पतंग
हर पल कटती है एक पतंग
और चारों ओर है बस एक ही शोर
लूटो लूटो...



Tuesday 18 October 2011

बस्ता जिम्मेदारी का ...


बचपन में एक बस्ता लेकर चलता था मैं अपने संग 
छोटा मगर कुछ भारी सा,
बस्ता मेरी जिम्मेदारी का
धीरे-धीरे बस्ता हल्का होता गया
मगर जिम्मेदारियों का बोझ फिर भी कम ना हुआ
फिर एक समय ऐसा भी आया बस्ता जाने कहाँ गुम गया
शायद काबिल नहीं था वो भी नयी जिम्मेदारियों के...

अब एक नया बस्ता मिला है लैपटॉप संग
जिसमे सारी जिम्मेदारियां सिमट जाती हैं और हाँ ज़िन्दगी भी...