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Thursday, 29 December 2016

प्रस्तरों का नगर, हम्पी...

हूँ मैं विस्मित
देखके अनुपम कला का रूप
इन प्रस्तरों की काय में

प्रस्तरों के इस नगर में
कौन थे वो
जो प्रस्तरों को चीरते थे
स्वेद अपना झीरते थे
दिन-रात अपनी कल्पनाओं की तरंगों से
इस नगर को नीरते थे

क्या वो सब मानव ही थे
या देव थे, गन्धर्व थे
या थे वो परिग्रह निवासी
क्या ये कोई जानता है
उस सत्य को पहचानता है
क्यों हुआ वो काल खण्डित
अब तो है वैभव वो कल्पित
कुछ शिलाओं को समर्पित
कर रहा मुझको अचंभित
कुछ उद्वेलित
एक सत्य संग...
ये सत्य मुझसे कह रहा है...

इक प्रमाणित तथ्य का साक्ष हूँ मैं
काल खण्डित गौरवों का हास हूँ मैं
प्रस्तरों के रूप में इतिहास हूँ मैं...




Thursday, 8 December 2016

अंतर्द्वंद...


द्वन्द
विचारों का 
कल्पनाओं का
स्वप्नों का  
भावनाओं का
संवेदनाओं का 
जिज्ञासाओं का 
अपेक्षाओं का
महत्वाकांक्षाओं का 
लिप्साओं का   
आशाओं का 
निराशाओं का 
हताशाओं का
अंतर्वेदनाओं का
अंतर्विज्ञान का 
भ्र्म का
सत्य का... 

आखिर क्या है ये द्वन्द 
एक हाड़-मांस के पुतले के अंदर, कितने द्वन्द बंद हैं 
कभी सोचा है ?
 

मैं उल्का हूँ...


मैं उल्का हूँ 
नभ में विचरण करता हूँ 
मेरी कल्पनाओं का बल मुझे वेग देता है

यही वेग जब बढ़ता जायेगा 
तो मैं चमकूँगा तारों सा 
या घुल जाऊंगा किसी नेब्यूला में

अन्यथा गिरूँगा धरा पे 
जिस दिन गुरुत्व का आकर्षण मुझे जीत लेगा... 




बातें बच्चों की...

आड़ी -तिरछी, इधर-उधर की बातें 
कभी छोटी, कभी मोटी बातें 
कभी सूरज, कभी चाँद की बातें 
कभी मोह्हले, कभी जहान की बातें 
कैसी कवितायेँ कहते हैं ये बच्चे 

कच्चे ख़यालों की खिचड़ी 
और समझ से परे बोल
इसी को कविता कहते हैं शायद...



Saturday, 2 April 2016

क्लिक...

मुझे शौक है तस्वीरें लेने का 
और तस्वीरों पे कहानी लिखने का 
एक कैमरा हमेशा संग लेकर चलता हूँ 
फुरसत मिलती है जब,
कॉपी ले लेता हूँ मेमोरी कार्ड की...

आप भी कभी कोशिश कीजिए 
स्पीड घटा कर,
आँखों से क्लिक करने की...

Tuesday, 16 February 2016

निर्वाण मार्ग...


प्रथम मार्ग, द्धितीय मार्ग, तृतीय, चतुर्थ और पंचम मार्ग
मार्ग में मार्ग,
मार्ग से मार्ग
जाने कितने अनेक मार्ग
इन मार्गों के जाल में  छिपा है एक मार्ग...

कब खुलेंगे चक्षु द्धार 
जो मिटायेंगे इस जाल का अँधकार 
और दिखलायेंगे बस एक मार्ग
ध्यान मार्ग-ज्ञान मार्ग-मुक्ति मार्ग 
निर्वाण मार्ग...  


Sunday, 1 November 2015

कहाँ है वो ग्रीन-रूम ?


सच की खोज में 
भटक रहा हूँ रोज
रंगमंच की गलियों में बस कुछ रूप दिखते हैं इसके
कुछ रूप देखें हैं मैंने, कुछ देखने बाकी हैं 
ये किरदार पहनता है नए-नए 
ऑडियंस मिले ना मिले, इसके शो चलते रहते हैं 
यहाँ दिन या रात नहीं होती, यहाँ होती है बस निरंतरता 
ये आज़ाद है समयचक्र के बंधन से... 

मुझे तलाश है इसके ग्रीन-रूम की 
जहाँ ये किरदार बदलता है 
जहाँ शायद ये चेहरा साफ़ करता होगा किरदार बदलने से पहले 
शायद दिख जाये मुझे इसका असली रूप 

आखिर कहाँ है वो ग्रीन-रूम ?