Sunday 1 November 2015

कहाँ है वो ग्रीन-रूम ?


सच की खोज में 
भटक रहा हूँ रोज
रंगमंच की गलियों में बस कुछ रूप दिखते हैं इसके
कुछ रूप देखें हैं मैंने, कुछ देखने बाकी हैं 
ये किरदार पहनता है नए-नए 
ऑडियंस मिले ना मिले, इसके शो चलते रहते हैं 
यहाँ दिन या रात नहीं होती, यहाँ होती है बस निरंतरता 
ये आज़ाद है समयचक्र के बंधन से... 

मुझे तलाश है इसके ग्रीन-रूम की 
जहाँ ये किरदार बदलता है 
जहाँ शायद ये चेहरा साफ़ करता होगा किरदार बदलने से पहले 
शायद दिख जाये मुझे इसका असली रूप 

आखिर कहाँ है वो ग्रीन-रूम ?


तुम आना...


जब धूप बढ़ेगी गर्मी में,
तुम आना                
मैं छाँव बनाके बगिया में,
इन्तजार करूँगा 

जब बारिश होगी पहली,
तुम आना            
मैं नाव बनाके कागज की, 
इन्तजार करूँगा

जब पत्ते गिरेंगे पतझड़ में,
तुम आना              
मैं नाम लिखके पत्तों पर,
इन्तजार करूँगा

जब बर्फ गिरेगी पहली,
तुम आना                  
मैं गुड्डा बनाके बर्फ का,
इन्तजार करूँगा  
  
जब फूल खिलेंगे बसंत में,
तुम आना           
मैं माला बनाके फूलों की,
इन्तजार करूँगा     

तुम बिन मौसम भी आना         
तुम किसी भी दिन चले आना      
मैं नैन बिछाके पलकों पे,
इन्तजार करूँगा
तुम आना

तुम आना जरूर...