बचपन में पतंगों संग फिकरें
भी उड़ जाती थी आसमां में
बस एक फिकर कटने की
पतंगें आज भी उड़ाता हूँ
सपनो की
और एक पल को फिकरें भी उड़
जाती है सब
खुद ही कन्नी बनाता हूँ और
चरखी भी सम्हालता हूँ
बड़ी मेहनत से मांजा बनाया
है
कभी ढील देता हूँ तो कभी
खींच
आज भी मैदान पर ही हूँ
मुकाबला है ऊँची छत वालों से
हवा भी कुछ ख़ास चलती नहीं
ना जाने क्यूँ कटने की फिकर
भी कुछ ज्यादा ही
लूटने वालों की कमी नहीं
और कोई साथी भी संग नहीं
जो दौड़ के उठा ले मेरी कटी
पतंग
हर पल कटती है एक पतंग
और चारों ओर है बस एक ही शोर
लूटो लूटो...
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