Sunday, 1 November 2015

कहाँ है वो ग्रीन-रूम ?


सच की खोज में 
भटक रहा हूँ रोज
रंगमंच की गलियों में बस कुछ रूप दिखते हैं इसके
कुछ रूप देखें हैं मैंने, कुछ देखने बाकी हैं 
ये किरदार पहनता है नए-नए 
ऑडियंस मिले ना मिले, इसके शो चलते रहते हैं 
यहाँ दिन या रात नहीं होती, यहाँ होती है बस निरंतरता 
ये आज़ाद है समयचक्र के बंधन से... 

मुझे तलाश है इसके ग्रीन-रूम की 
जहाँ ये किरदार बदलता है 
जहाँ शायद ये चेहरा साफ़ करता होगा किरदार बदलने से पहले 
शायद दिख जाये मुझे इसका असली रूप 

आखिर कहाँ है वो ग्रीन-रूम ?


तुम आना...


जब धूप बढ़ेगी गर्मी में,
तुम आना                
मैं छाँव बनाके बगिया में,
इन्तजार करूँगा 

जब बारिश होगी पहली,
तुम आना            
मैं नाव बनाके कागज की, 
इन्तजार करूँगा

जब पत्ते गिरेंगे पतझड़ में,
तुम आना              
मैं नाम लिखके पत्तों पर,
इन्तजार करूँगा

जब बर्फ गिरेगी पहली,
तुम आना                  
मैं गुड्डा बनाके बर्फ का,
इन्तजार करूँगा  
  
जब फूल खिलेंगे बसंत में,
तुम आना           
मैं माला बनाके फूलों की,
इन्तजार करूँगा     

तुम बिन मौसम भी आना         
तुम किसी भी दिन चले आना      
मैं नैन बिछाके पलकों पे,
इन्तजार करूँगा
तुम आना

तुम आना जरूर...


Wednesday, 30 September 2015

बुद्ध बनने की चाह...

कल देखा था
आज भी देखा
कूड़े के ढेर में सोया हुआ पागल
ऐसे दृश्य अब बस दृश्य हैं
कोई सत्य नहीं...

क्या मर चुका है मेरे अंदर का सिद्धार्थ ?
अगर हाँ,
तो, क्यों जिंदा है बुद्ध बनने की चाह ? 


Saturday, 26 September 2015

मैं एक्स-आर्मी हूँ !

पल्टनों का शोर अब मुझे सुनाई नहीं देता
अब मैं खबरें पढ़ता हूँ पलटनों की अखबार में

आजकल मैं खुद एक खबर हूँ
आजकल मेरी एक पल्टन लड़ रही है एक अलग सी लड़ाई
एक पुरानी लड़ाई,
लड़ाई जो पहले कुछ कागजों और कमरों में बंद थी
आज दिख रही है सबको


मैं एक्स-आर्मी हूँ
मैं एक योद्धा हूँ
मैं केवल रिटायर हुआ हूँ
लड़ने का दम-ख़म आज भी मेरे संग है
मैं युहीं एक्स नहीं बना
मैंने ए से शुरुवात की थी
मैं पहले भी लड़ता था
और आज भी लड़ रहा हूँ  
मैं तब तक लड़ता रहूँगा
जब तक जेड की जड़ता मुझे सुला नहीं देती...



Monday, 21 September 2015

हर सिपाही लिखता है एक कविता...

हर सिपाही लिखता है एक कविता

कविता शौर्य की
कविता साहस की
कविता बलिदान की
कविता स्वाभिमान की

कविता अनदेखी संवेदना की
कविता अनोखे त्यौहार की
कविता बिछड़े यार की
कविता देश से प्यार की

कविता बर्फीली सुबह की
कविता रेगिस्तानी धूप की
कविता अकेली साँझ की
कविता बँकर से दिखने वाले चाँद की

ये कविता कभी ख़त्म नहीं होती
ये कविता चलती रहती है सिपाही संग
सिपाही शर्माता है इस कविता को कागज पर लिखने से
उसे डर है, कि फतांसी दुनिया में रहने वाले सिविलियन्स उसके सच को फतांसी ना समझ लें

कभी मौका मिले तो पहनना सच का चश्मा
और पढ़ना किसी सिपाही यार को...