Sunday 18 September 2011

हिंदी सम्मेलन...

कल एक हिंदी सम्मेलन में गया था सपने में, 
प्रेमचंद जी भी दिखे थे, आँखों में आंसू थे उनके.
आन्सुवों का कारण था India जो कभी भारत था...

India तो खबरों में shine कर रहा है,
पर शायद भारत इस चमक में कहीं खो गया है...
और हिंदी भी कुछ धुंधली सी दिखती है,  
MNCs की भीड़ में...
   
कलम के सिपाही प्रेम जी देश के भी सिपाही थे,
उनकी किताबों में गाँव आज भी जिन्दा हैं.
जो आज केवल नक्शों में जिन्दा हैं...
असली कहानी तो सूखे-बंजर खेत और वीरान पड़े घर बताते हैं...

India की तो अब अपनी अलग ही भाषा है.
संस्कृति को जिसमे culture बुलाते हैं.
लोग कितने ही गरम हों कूल कहलाते हैं.
और हिंदी की तो बस रस्म निभाते हैं...

अब MNCs की भीड़ में भला मैं शिकायत करूँ भी क्यूँ .
और अगर करूँ तो किससे ?
मैं भी तो इसी भीड़ का हिस्सा हूँ.
बस रस्म निभाने के लिए सपने देखता हूँ...   
  

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