Thursday 29 September 2011

जाने कबसे वो टी-शर्ट लटकी है...

एक बात है जो दिल में ना जाने कबसे है अटकी
बात कहूँ या जज्बात कहूँ
लगता है जैसे कोई टी-शर्ट जाने कबसे खूंटी से है लटकी
नयी है...
बस बाहर से धूल जम गयी है
अब कुछ गन्दी और पुरानी-सी लगती है...
ऐसा ही कुछ वो रिश्ता भी है शायद
सब कुछ सही है
बस कुछ धूल जम गयी है फासलों की
फासले जो केवल दिखते हैं कुछ नक्शों में
कुछ हैं जो ख़ामोशी ने बनाये वो दिखते नहीं
अब कुछ दिखती हैं तो बस ग़लतफ़हमी की ऊँची दीवारें...
इन्ही ऊँची दीवारों पर गढ़ी एक खूंटी से,
जाने कबसे वो टी-शर्ट लटकी है...


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