Tuesday 20 September 2011

दहेज़ दानव...

उसके हाथों की मेहंदी का रंग अभी सूखा भी ना था.
घर के बाहर बची कुछ झिलमिल-पतंगें बता रही थी,
अभी कुछ दिनों पहले ही आई थी वो यहाँ.
नयी दुनिया, नयी उमंगें, नए सपने और कुछ नए रिश्ते.
सब कुछ नया,
बस एक दानव पुराना...

ये दानव आसानी से शांत होता ही नहीं
ये मांगता है किसी की बलि या फिर पैसों की चमचमाती फली.
मारने की कोशिश भी की थी कुछ लोगों ने,
जाने क्यूँ कमबख्त जड़ से मरता ही नहीं...

किचेन में गयी थी वो शाम की चाय बनाने,
पता नहीं खिड़कियाँ तो सभी बंद थी,
ना जाने कहाँ से आ गया ये दानव
ले गया उसे अपने संग...

अखबार टटोला तो कोने में कहीं दिख गया बाइ चान्स
ऐसे कोने मैं कम ही टटोलता हूँ.
रपट लिखा दी गयी है और तलाश जारी है...

कुछ मानव शायद मिल भी जाएँ,
पर इस दानव का कुछ पता नहीं.
छिप के बैठा है कुछ दिमागों में हर गली-शहर में कहीं ना कहीं... 


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