Sunday 4 September 2011

हंसी के सिक्के...

मैं बाज़ार के सिलसिले में,
कभी-कभी गुजरता था उस रास्ते से
तो एक मासूम मिलता था मुझे एक मोड़ पे
बगल में एक और मासूमियत संग बैठा
वो पूछता था सबसे कुछ सिक्कों के लिए...

मैंने भी एक दिन सिक्का देने के बहाने पूछ लिया उसका हाल-चाल,
और बदले में उसने दे दिए कुछ हँसी के सिक्के

मालूम नहीं कितना लम्बा चला था ये सिलसिला...
एक दिन की याद है मुझको, जब सिक्के नहीं थे मेरे पास देने को,
मैं उससे नजर बचाके कदम बढाने लगा
इतने में आवाज़ देके उसने बुला दिया अपने पास,
सिक्के नहीं मांगे थे उस दिन बस हाल-चाल ही पूछा था
और बदले में मुझे दे दिए वो हँसी के सिक्के फिर से
अगले दिन भी मैं बाज़ार गया हँसी के सिक्कों को खरीदने,
पर वो हँसी के सिक्कों वाला दिखा नहीं मुझे
आस-पास वालों से पूछा, ये आज आया था क्या ?
भला कोई क्यूँ उसकी खबर रखता...
उस दिन खाली हाथ ही लौटा था मैं 
वो हँसी के सिक्के और कहीं मिले नहीं बाज़ार में,
और मैंने ज्यादा खोजा भी नहीं...

शाम को अखबार टटोला तो पता चला,
ये सिक्के लेने वाले चुभते हैं कुछ लोगों की आँखों में
और शहर में एक नया कायदा-सा आया है,
अब यूँ ही कोई हँसी के सिक्के कहीं पे भी नहीं बेचेगा...

इसके बाद भी जब भी मैं बाज़ार को जाता,
पूछता जरूर था उन मोहल्ले वालों से,
वो मेरे जाने के बाद आया तो नहीं था
वो आया था क्या ?
उन्होंने भी मेरे इस फितूर को हँसी में उड़ा दिया
कुछ ने पूछा क्या आपका कुछ सामान ले गया था चुरा के?
पर मैं उनको कभी कुछ बता ना पाया
जिन चेहरों पे हँसी सिक्कों से आती हो,
वो हँसी के सिक्के क्या जाने...

अब बाज़ार भी कुछ बड़ा-सा है, बदल गया है
पर वो हँसी के सिक्कों वाला कोई दिखता नहीं इस बड़े से बाज़ार में...


*इस कविता की प्रेरणा गुलजार साब की कविता 'मैं रोजगार के सिलसिले में' से मिली 

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