शाम होती कहाँ
है इस शहर में
दिन के बाद सीधे
रात ही दिखती है
जब जाता है सूरज
उस देश कहीं
शाम छिप जाती है
शहर की रोशनी में यूँ ही
शाम शहर में
तन्हा सहमी-सी है...
कहीं कोई शाम
मेरे इन्तेजार में होगी शायद,
कि बताना भूल
आया था इस शहर में आने से पहले
पहले दोनों के
पास फुरसत काफी थी
कभी यारों संग
तो कभी अकेला ही
जाता जरूर था
शाम के पास टहलते-भटकते यूँ ही
शाम सुनाती दूर
देशों के किस्से
और मैं भी
सुनाता जो आया दिन भर मेरे हिस्से
सूरज की लालिमा
जो सुबह जल्दी ही गुजर जाती थी
शाम के संग बैठ
कर फुरसत से दिख जाती थी...
अब तो बंद हूँ
दीवारों में जो दिखती हैं शीशे सी
रोशनी जहाँ रहती
है हर वक़्त कुछ एक सी
पता लग नहीं
पाता शाम के आने का
बस बाहर आने पर
दिखता अँधेरा है रात का...
वो एक-दो दिन
हफ्ते में कभी-कभार,
हो जाती है शाम
से दूर से ही आखें चार
पर इस शहर की
रोशनी में, शाम भी लगती है कुछ बीमार
सोचता हूँ जब
जाऊँगा घर अगली बार
मिलूँगा जरूर
मैं शाम से
शायद बतलादे कोई
देशी नुस्खा,
अपनी
शहरी बहन के लिए...
फिर हफ्ते में
एक-दो बार ही सही,
शाम से जब
मुलाकात हो वो तन्हा-सहमी सी ना लगे
शाम बस शाम
लगे...
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