Saturday 6 August 2011

आवाजों के बाज़ारों में...


आवाजों के बाज़ारों में,
फिरती है तन्हाई संग मेरे.
और ये सब फूल से खिलखिलाते चेहरे.

हर कोई है तन्हा शायद कहीं ना कहीं.
युहीं किसी चेहरे को पढ़ लो,
इतना भी आसान नहीं.
मैं भी खिलता हूँ दिन भर इन चेहरों संग.
पर कुछ पल में ही ढल जाती है ये सारी उमंग.

अब फिर से बैठा हूँ युहीं तन्हाई संग,
कभी अपने भी दिन थे जब था मैं यारों संग.
हर बात पे युहीं चिल्लाना,
फिकरों को हंसी में दबा जाना.
कोई वजह मिली तो हंगामा,
बिन वजह के भी हँसते जाना...

अब वक़्त का सूरज गया है ढल,
बिन धूप के अब मैं खिलूँ कहाँ.
ये तो शायद ध्रुव* का सूरज,
यूँ मिलेगा कब अब पता कहाँ...

कुछ ढूंढता हूँ मैं खुद में अब,
वो चेहरा जो छुप गया कहीं.
कुछ दूंधला सा है वो भी अब,
इठलाता है मुझे देख के बस.
और पूछता है वो भी मुझसे,
मैं बदल गया हूँ यूँ कब से.
कुछ कहने की हिम्मत नहीं,
और घबराता हूँ मैं खुद से.
दुनिया की अब है फिकर कहाँ,
मेरा अक्श हँस रहा खुद मुझपे.
उस ओर वो हँसता है जो कहीं,
आँखों में छुपाता हूँ मैं नमी.
फिर से थोडा हँस लेता हूँ,
यूँ रश्म निभाने को ही सही...

अब खिलता हूँ मैं चेहरों संग बनके कागज़ का फूल,
बिन धूप के भी मैं खिलता हूँ संग ले बाज़ार की धूल.
इस धूल की वजह से अब शायद मैं बदल गया हूँ इतना अब.
आवाजों के बाज़ारों में फिरता हूँ तन्हा जब तब,
आवाजों के बाज़ारों में................

*ध्रुव : Pole, In Poles DAY and NIGHT used to be for 6 months.

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