कभी मैंने भी की थी दोस्ती कुछ सपनों से,
जो गहराती गयी संग समय के
पता था कि संग छूटेगा इनसे पहुचुँगा जब मंजिल पे
और दोस्ती होगी कुछ और नए सपनो से
शायद लायक ना था मैं इन सपनो के,
छोड़ चल दिए मुझे बीच में ही...
बस इतना पता था कि ये सपने हैं नए ज़माने के
ना था पता कि संग छोड़ देंगे पहले ही मंजिल पाने के
अब तो डर लगता है इन सपनो के आने से
फिर से कहीं सोच ना लूँ खुद को अलग ज़माने से
कहता हूँ अब अपने सिरहाने से
ना मिलाओ मुझे उस अजनबी दुनिया से
पर इन खुली आँखों का क्या...
मैं क्यूँ करूँ गम इन सपनो के खो जाने का
गम तो होता है उसका जो कभी अपना था
ये तो सपना था सपना बन कर रह गया
फिर कभी आएगी इन सपनो से मुलाकात की बारी,
जाने क्यूँ इनसे दोस्ती रखना आदत है हमारी...
No comments:
Post a Comment